अनेक लोग यह समझते हैं कि जब वे मानवता के लिए समाज सेवा के कार्य जैसे; दीन-दुखियों की सहायता करना, चिकित्सीय सहायता उपलब्ध करवाना, सुविधाओं से वंचित बच्चों को पढाना, धर्मादाय संगठनों को दान देना, आपदाओं के समय लोगों की सहायता करना, वृद्ध जनों की देखभाल करना इत्यादि में संलग्न होते हैं तो इससे वे ईश्वर की ही सेवा करते हैं ।
वे समझते हैं कि ऐसे कार्यों द्वारा तथा अन्य लोगों के प्रति व्यक्तिगत त्याग से उनकी आध्यात्मिक उन्नति निश्चित होगी । ऐसे अनेक गैर सरकारी संगठन हैं जिनमें ऐसी इच्छा रखने वाले सहस्त्रों स्वयंसेवी काम कर रहे हैं । सभी के मन में इस विश्व को रहने के लिए एक उत्तम स्थान बनाने के महान उद्देश्य है। कभी-कभी किसी व्यक्ति में साधक के गुण होते हैं किंतु वह यह नहीं जानता कि वह एक साधक है ।
ऐसे व्यक्ति त्याग तथा अन्य लोगों का विचार करनेवाले अपने स्वाभाविक साधकत्व का प्रयोग समाज सेवा के कार्यों में करते हैं, क्योंकि वे लोगों की सहायता करने के अतिरिक्त आध्यात्मिक उन्नति करने का कोई अन्य मार्ग नहीं जानते ।
पूरे विश्व में यह एक आम धारणा है कि दरिद्र तथा दलितों की सहायता करना अति श्रेष्ठ कर्म है तथा ऐसा कार्य है जिससे समाज में सम्मान प्राप्त होता है । इसलिए यह समझा जा सकता है कि (क्यों) कुछ साधक चकित रह जाते हैं जब हम उन्हें यह बताते हैं कि सामाजिक सेवा साधना के तुल्य(बराबर) नहीं है । यह साधकों के लिए विशेष रूप से भ्रमित करने वाला है क्योंकि विश्व में अनेक तथाकथित आध्यात्मिक गुरु सक्रिय रूप से मानवतासंबंधी कृत्यों का प्रचार करते हैं ।
अतः लोगों की सहायता करने हेतु समाज सेवा के रूप में निष्ठा से किए जाने वाले प्रयास साधना के समांतर क्यों नहीं होते हैं तथा समाज सेवा के फलस्वरूप साधक की अपेक्षित आध्यात्मिक उन्नति क्यों नहीं होती ? वर्तमानकाल में इस सिद्धांत को समझना सरल नहीं भी हो सकता है । इस लेख में हमने इस सिद्धांत के पीछे छुपे औचित्य को समझाया है ताकि कि जो साधक सही अर्थ में आध्यात्मिक उन्नति हेतु प्रयास कर रहे हैं वे अपना समय तथा प्रयास सही दिशा में लगा सकें ।
No comments:
Post a Comment